Wednesday 2 January 2013

 क्या कहता है जनाधार ?
तो क्या अब ये मान लिया जाए कि भारतीय वोटर जागरूक हो चुका है वो समझने लगा है कि किसे जीतना चाहिए और किसे हारना? दो तीन बातें तो 15वीं लोक सभा चुनाव के नतीजों से तो साफ हो चुका है।भारतीय वोटरों की मन:स्थिति, अब कोड़े भाषणों से परिवर्तित नहीं होने वाला,काम भी करके दिखाना होगा। मनमोहन तो भाषण नहीं करते और ना ही वो किसी लोक सभा सीट से आते हैं फिर भी जनाधार ने उनके नेतृत्व को पसंद किया।जिस तरह से 1991 के वित्तीय संकट से मनमोहन ने देश को उबारा था, वो ऋण भी भारतीय जनता ने इस बार उतार दिया।जनाधार ने उनपर भरोसा जताया है।
वोटरों को रिझाना अब आसान नहीं
इस बार के रिजल्ट ने उन नेताओं को ये संदेश दे दिया है कि सिर्फ दिल्ली में स्थित सुविधा-संपन्न बंगले में रहने से काम नहीं चलेगा। या फिर सिर्फ वोट के वक्त वोटरों को याद करना महंगा पड़ सकता है। आकर आपको वोटरों और अपनी जनता को याद करते रहना होगा अगर आपने ऐसा नहीं किया तो लाज़मी है कि आप अगली बार इन सुविधा-संपन्न बंगले के हकदार नहीं होंगे।सिर्फ कड़ी धूप में चुनाव के वक्त घूम लेने और चिकनी चुपड़ी बातें कर लेने से वोटरों को अपने पक्ष में कर लेना इतना आसान नहीं रहा।जिन सुविधाओं के बीच आप दिल्ली में रहते हैं कम से कम उतनी हम नहीं मांगते, लेकिन शहर में रहूं तो एक अदद बल्ब जले और पीने के लिए पानी तो दो।गांव में रहूं तो खेती के लिए खाद तो दो और नहीं दे सके तो फिर मतदाताओं के बीच ही रहना अगले पांच साल क्योंकि खाता तक नहीं खोल पाओगे।रामविलास पासवान की हार ने तो जनमत के इसी संदेश को पहुंचाया है।

क्या एक बार फिर से एक पार्टी संसद में निर्णय ले सकेगी?
जिस तरह से जनता ने कांग्रेस के पक्ष में वोट डाला है सभी मुद्दे को दरकिनार करके संसद तक भेजा है, उससे तो यही लगता है कि एक बार फिर से वोटरों का एकध्रूवीयकरण होता जा रहा है। सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस  और कोई नहीं ! 272 के जादूई आंकड़े से कुछ कदम दूर तो क्या ये मानने का विकल्प है हमारे पास कि अगर युवराज (राहुल हालांकि इस शब्द से परहेज करते हैं) अगले पांच सालों में भारतीय राजनीति के स्वरूप को बदल पाये (चुनाव परिणाम के तुरंत बाद यही राहुल ने यही कहा था) तो निश्चित है कि 2014 में कांग्रेस 206 से आगे बढ़कर हो, उसे न ममता कि जरूरत होगी, न माया की।
मनमोहन सिर्फ काम करते हैं...
पीएम इन वेटिंग ही रह गये लाल कृष्ण आडवाणी के तीक्ष्ण बाणों से तिलमिलाए मनमोहन ने बेशक चुनाव से थोड़ा पहले आपा खो दिया था लेकिन अब उन्हे ये तो अहसास हो ही गया होगा कि जनता उन्हे उनके काम से जानती है ना कि नाहक व्यगंय प्रति व्यगंय के कारण।आगे वो इसी काम को आगे बढ़ाएंगे। इसी उम्मीद के साथ वो दुबारा संसद में बहुमत दल के नेता रहें, इसलिए जनता की पहली पसंद कांग्रेस बनी।
बाहुबली नहीं सिर्फ विकास
मिडिया ने जिस तरह से प्रत्याशियों को पब्लिक के बीच लेकर आया उससे तो यही लगता है कि बाहुबलियों की हवा निकल गयी इस बार। अगर आपकी छवि नकारात्मक है तो फिर आप बीवी को चुनाव में उतारें या फिर भौजी को जीतकर संसद नहीं पहुंच पायेगी।लेकिन अगर आप बड़े गुंडे है लेकिन आपनी जनता के लिए हमदर्दी दिखाई है तो खुशी खुशी संसद पहुंचिये कौन रोकेगा। हमें आपके बाहुबल की जरूरत नहीं या हमें एक और सरकार नहीं चाहिए बस चाहिए तो पगडंडी की जगह सड़कें और बरसाती पानी के निकासी के लिए नाला क्योंकि आप तो रेड कारपेट पर चलते हैं और हमें कीचड़ों में ईंट डालकर गुजरना पड़ता है नेता जी।

आप नेता हैं या बंदर  या ब्लैकमेलर?
ज़रा उस शेर याद करिये हर शाख पे उल्लू बैठा है अंजामें गुलिश्ता क्या होगा।सोमनाथ दा को तो इतना गुस्सा आया कि उन्होने उन सभी नेता रुपी बंदरों को श्राप दे दिया कि आप अब यहां आ पाएंगे जनता देख रही है खैर जनता ने कितना देखा ये तो पंद्रहवी लोकसभा के संसद से पता चल ही जाएगा।लेकिन इससे दिगर एक और बात ममता ने तो कह दिया है कि मेरी पार्टी के जुझारू कार्यकर्ता जिन्होने टाटा को उखारने में पसीने बहाए लाठियां खाई और सबसे अहम बात लेफ्ट को राइट का अंदाजा कराया उनको पांच मलाईदार मंत्री पद चाहिए।डीएमके को आठ।नहीं तो क्या ? अभी पता नहीं दो तीन दिन में पता चल ही जाएगा। और जो इस हालत में नहीं हैं वो बिना शर्त समर्थन देने को तैयार दिखे क्योंकि वो इस स्थिति में हैं ही नहीं।लालू की बात कर रहा हूं चार सीट लेकर पहुंचे ये कहने कि बिना शर्त समर्थन देंगे।इससे पहले एक रोचक खबर आई कि लालू के रेल मलाई आवास मेरा मतलब है उनके दिल्ली स्थित आवास पर जो रेल मंत्री का नेम प्लेट लगा था उसमें से रेल हट गया सिर्फ मंत्री शब्द दिख रहा था किसी चैनल ने इसे खूब भूनाया भी।यही सोचकर शायद लालू कैबिनेट मीटिंग में पहुंचे थे बाद में उन्होने कहा कि उनका अपमान हुआ।बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले।

इवीएम तो ठीक था न ?
अब जरा गौर कीजिए हमारे भूतपूर्व और भावी गृहमंत्री पी चिदंबरम हारते हारते जीत गए क्या सच में इवीएम में खराबी हो गई थी पुन: गणना की जरूरत पड़ी।हो सकता है क्या पता मशीन ही तो है लेकिन कहते हैं कि मशीन गलती नहीं करता गलती इंसानों से होती है।फिर पासवान अपनी हार का ठीकरा प्रशासन पर क्यों फोड़ रहे हैं ? लालू प्रसाद के लिए कई जुझारू मतदाता कहते हुए सुने गए कि लालू का सारण से हारना तय है लेकिन ये क्या हुआ वो तो वहीं से हार गए जहां से वोटर उनके जीतने की आस में थे।गंभीर विषय है या फिर सुभाष चंद्र बोस और संजय गांधी की मौत की तरह अबुझ पहेली। बस इतना जान लीजिए कि काम नहीं किया तो फिर दिल्ली के राजपथ होकर संसद नहीं जा सकेंगे।ये पब्लिक है सब जानती है।

आतंक की परिभाषा क्या है ?

प्रजातंत्र बनाम नक्सलवाद



चुनाव आयोग की कैसी रणनीति

कितनी अजीब बात है चुनाव का पहला चरण शुरू हुआ और शुरूआत नक्सली हमले से।ज्यादा मुश्किल स्थिति नहीं है समझने की क्या कारण हैं, इन नक्सली हमलों के।दरअसल,चुनाव आयोग ने नक्सल प्रभावित जगहों को एक ही दिन में निपटाने की जुगत लगाई। इस रणनीति को समझना काफी मुश्किल है लेकिन इतना आप समझ सकते हैं ये नीति कितनी बुरी तरह से फ्लॉप साबित हुई। जिसने ये नीति बनाई क्या वाकई इनकी सोच यहां तक नहीं पहुंच सकी कि सुरक्षा बल को भी हर जगह के लिए बंटना होगा जिससे सुरक्षा बल कमजोर पड़ेंगे।जबकि हमारे सुरक्षा बलों की संख्या 70 -80 होती है जबकि नक्सलियों की संख्या 200-300 तक होती है। उड़ीसा के नाल्को खदान पर अटैक इसका ताजा उदाहरण है।




तो फिर गर्व कैसा ?

इन नक्सली प्रभावित क्षेत्रों में 70-80 सुरक्षा बलों के लिए सबसे बड़ी चुनौती कम से कम 100-200 नक्सलियों से संघर्ष तो करना था ही आम मतदाताओं में ये विश्वास बहाली का काम भी उनपर छोड़ा गया कि लोग पोलिंग बुथ तक आएं और वोट कर खुद को गौरवान्वित महसूस करें ।इन नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में आम लोगों की तो छोड़िए थाने में सिपाही तक शायद ही आपको दिख जाएं। फिर प्रिजाइडिंग ऑफिसर और पेट्रोलिंग ऑफिसर के गस्त की बात करना तो बेमानी ही है। तो सवाल ये उठता है कि क्या एक आम मतदाता को पोलिंग बुथ तक लाया जा सकता है ? शायद नहीं! इन हालात में हम गर्व कर सकते हैं कि हम सबसे बड़े लोकतंत्र में वोट करा रहें हैं ? तो फिर प्रतिशत मतदान की बात करना कितना उचित है ?जरा सोचिए।



सुरक्षा बलों की मजबूरी

नक्सलियों ने पहले ही घोषित कर दिया था कि वो चुनाव का बहिष्कार करेंगे।ऐसे में इन सुरक्षा बलों के लिए चुनौती पहले से बनी हुई थी।फिर भी सभी नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में चुनाव की जिम्मेदारी इन पर डाल देना क्या चुनाव आयोग इन सुरक्षा बलों के मनोबल को नहीं तोड़ रहा शुरूआत नक्सलियों ने कर भी दी।सुबह सुबह लातेहार में बीएसएफ के छह जवान मारे गए।हजारीबाग, गया, छत्तीसगढ़ सभी जगह नक्सली हमले किए गए। ये वही बीएसएफ है जिसे सिर्फ टैंक नहीं दिया जाता, लेकिन सभी सैन्य साज़ोसामान ट्रेनिंग से लैस किया जाता है।इसकी कर्तव्यनिष्ठा का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि अमृतसर टेंपल के बाद सिख विद्रोह को इसने कैसे रोका था किसी भी आतंकवादी के पहंचने पर सबसे पहले ये अपने सीने पर गोली सहते हैं।



क्या नक्सल को हम आसान समझ रहे हैं ?
इस चुनाव से ये बात सामने आ जाएगी कि क्या हम नक्सल को कमतर तो नहीं आंक रहे।या यूं कहे कि इस क्षेत्र पर मीडिया ने काम नहीं किया है या अपनी जिम्मेदारी नहीं समझता।दरअसल ज्यादातर नक्सल प्रभावित गांव में पुलिस बल
तक की हिम्मत नहीं होती जाने की तो पत्रकार कहां से जाएंगे।टीवी जर्नलिस्ट की बात करें तो मासाअल्लाह वो तो उन्ही टैंक पर बैठ कर पीटूसी देंगे जहां से ये पता हो कि गोलियों का रुख उनकी तरफ नहीं होगा।पर, अफसोस नक्सल उन हर लोगों को अपना दुश्मन समझते हैं, जो रास्ता प्रगतिवाद की तरफ ले जाता है। इसलिए नहीं कि उन्हे प्रगति पसंद नहीं विकास पसंद नहीं दरअसल नक्सलियों का जन्म ही मोहभंग के कारण हुआ है और ये मोहभंग हुआ है नेताओं की ओर से विकास का छलावा करने के कारण।स्वाभाविक ही है इन नक्सल प्रभावित राज्य खासकर उड़ीसा में नेताओं के भ्रष्टाचार किसी से छिपी नहीं है।उड़ीसा में तो पूरा का पूरा गांव ही नक्सलवाद से जुड़ा है। झारखंड के कोडरमा,बिहार के गया में उड़ीसा के मलकानगिरी क्षेत्र नक्सल की चपेट में हैं इन गांवों में तो समानान्तर सरकार न कहकर नक्सल सरकार कहें तो गलत नहीं होगा।



नक्सली नेताओं के नए हथियार

जरा याद कीजिए टी एन सेशन युग से पहले के चुनाव को..किस तरह बाहुबली का प्रयोग करके नेता अपनी जीत पक्की करते थे।काउंटिंग के वक्त मिलीभगत से पूरा का पूरा पासा ही पलट दिया जाता था।इस छींटे से तो नेहरूजी भी अछुते नहीं रहे मौलाना आजाद के लखनऊ से हारने की खबर के बाद किस तरह से उन्होने कलक्टर को तार भेज कर परिणाम पलटने के लिए कहा था और मौलाना चुनाव हार कर जीत गए थे। ऐसे में शेसन एरा के बाद शुरू हुए कड़ाई में नेताओं को चुनाव प्रभावित करने का कोई मौका नहीं मिल पा रहा था बाहुबलि भी समझदार हो गए..खुद चुनाव मैदान से संसद तक पहुंच गए तो अब कहीं जंगल में अमूमन कब्जा जमाकर बैठे असंतुष्ट नक्सली कहीं इन नेताओं के इशारे पर नहीं नाच रहे।कोई बड़ी बात नहीं क्योंकि जंगल के राजा डकैत विरप्पन को लेकर भी ऐसी खबरें आई थी कि उसको नेताओं का प्रश्रय मिला हुआ था। खैर ये जांच का विषय है लेकिन जिस तरह से 15 वीं लोक सभा चुनाव को जिस तरह से प्रभावित किया है उससे एक बात तो साफ है कि हमें आतंकवाद का डर जितना सता रहा है, उससे कहीं से भी कमतर नक्सलवाद को नहीं आंका जा सकता। बल्कि इससे तो ज्यादा डरने और इसके खात्मा की जरूरत होगी। थोड़ी देर पहले खबर आई कि पीएमके अध्यक्ष रामदौस प्रभाकरण को आतंकवादी नहीं मानते।राजीव का कातिल है वो..पीएमके अध्यक्ष रामदौस प्रभाकरण को आतंकवादी नहीं मानते।मुझे याद है पत्रकारिता पढ़ाने वाली भारत सरकार की एकमात्र संस्था में जब प्रवेश परीक्षा दे रहा था ..आतंकवाद के प्रश्न के जवाब में लिख रहा था। मैंने लिखा था आतंकवाद की परिभाषा सीमा दर सीमा बदल जाती है।मैं शायद इसलिए फेल कर दिया गया।लेकिन आज जिस तरह के बयान हमारे कर्णधार दे रहे हैं उससे यही लगता है कि प्रभाकरण उन्ही के बीच का है, बस सीमा का फर्क है।प्रभाकरण श्रीलंका को खोखला कर रहा है जबकि उसके हितैषी उसके भाई हमारे देश को खोखला कर रहे हैं।ज़रा ध्यान दीजिए इच्छा जताइये कि एंटी इकम्बेंसी फैक्टर काम आए और विपक्षी सरकार बनाए फिर इन मंत्रियों की पोल खुलेगी कि पांच साल में इन्होने क्या गुल खिलाए कितने सेंट किट्स मामले बनाए...खैर ये एक अलग विषय है इस पर फिर कभी।लेकिन यहां सबसे बड़ा सवाल उठता है कि हम दोहरे मापदंड क्यों अपनाते हैं। एक तरफ हम श्रीलंका को अस्थीर देखना चाहते हैं, दूसरी तरफ हम पाकिस्तान से उम्मीद करते हैं कि वो उन आतंकवादियों को पनाह न दें जिन्हे उनके आला क्रांतिकारी मानते हैं- फ्रिडम फाइटर। प्रभाकरण किसके लिए लड़ रहा है?  क्या ये बेहतर नहीं होता कि वो वहां के संसद में तमिलों का प्रतिनिधित्व करता और सिंहलियों के बीच खुद और तमिलों के कद को बड़ा कर देता ।इतने सालों से प्रभाकरण, लाखों तमिलों को मौत के घाट उतरवा चुका है आखिर किसे क्या मिला ?  अगर वो आज नहीं होता और सिंहली लगातार बेइंतहा जुर्म भी कर रहे होते तो भी इतने लोगों की जान नहीं जाती।तमिलों को बड़े कैनवास पर नहीं ला सका प्रभाकरण। आज इतने सालों की लड़ाई के बाद भी तमिल वहीं खड़े हैं जहां वो एलटीटीई की स्थापना(1976) से पहले थे।अगर प्रभाकरण को सुभाष, भगत के साथ साथ गांधी भी पसंद होते तो आज तस्वीर कुछ और होती श्रीलंका में तमिलों की।आखिर कोई ये समझने को तैयार क्यों नहीं है कि लड़ाई कभी एक तरफा हो ही नहीं सकता।ये बात अमेरिका जैसे दादा को भी एहसास हो गया होगा, अलकायदा और तालिबान से लड़ते हुए।आप एक चप्पल मारेंगे तो सामने वाला दो चप्पल लेकर खड़ा दिखेगा।हां एक फायदा जरूर हुआ तमिलों को, उनकी आवाज अंतर्राष्ट्रीय हो गयी है। लेकिन ये तो भारत के कूटनीतिक प्रयास से भी संभव था।कुछ लोग मानते हैं कि एलटीटीई को खड़ा भारत ने ही किया।लेकिन सवाल उठता है कि अब भारत ने रुचि लेनी कम क्यों कर दी। क्या सच में श्रीलंका इतना बड़ा देश है हमारे लिए कि हमें पाकिस्तान की तरह हथकंडे अपनाने की जरूरत पड़े।शायद नहीं लेकिन भारतीय लिडरों की बेचैनी साफ बयां कर रही है कि वो प्रभाकरण को क्यों खड़ा देखना चाहते है जैसा मैंने पहले के लेख में बता चुका हूं ये नेता किस तरह नक्सलियों का इस्तेमाल वोट के लिए कर रहे हैं, कैसे विरप्पन का इस्तेमाल पैसों और दुश्मनों से निपटने के लिए किया था इन नेताओं ने।अभी वो पहलू भी उजागर होना बाकि है जिससे ये पता चल सके कि राजीव गांधी के बढ़ते कद से किन नेताओं को समस्या आ रही थी।मुझे तो लगता है कहीं करुणानिधि, रामदौस और गृहमंत्री जिस तरह का बयान दे रहे हैं कहीं भारतीय खुफिया या सुरक्षा एजेंसियों का इस्तेमाल प्रभाकरण जैसे आतंकवादी को बचाने में न किया जाए।



ये कैसी छिछोरी राजनीति..


राबड़ी को सुना लगा चलो गंवार औरत है अपना अंदाज होता है उनका भी। फिर अचानक से उनके शासनकाल की याद हो आयी।आखिर उस औरत ने शासन को कैसे चलाया होगा? सचमुच बिहार में जिस तरह से जातीय समीकरण मौजूद था, उसे धवस्त जरूर किया इस परिवार ने। शायद इसके लिए मीडिया को भी श्रेय जाता है ।पर अब वहां के लोग विकास का अर्थ भी समझने लगे हैं उम्मीद तो यही होनी चाहिए कि ऐसी हालत बिहार की दुबारा न हो जैसा लालू एंड कम्पनी ने पंद्रह साल में कर दिया।अकेला चना भांड नहीं फोड़ता सो इस डूबे राज्य को अकेले नीतीश तो ठीक नहीं कर सकते उनके साथ भी ऐसे लोग नहीं जो उनके सदकार्यों में उनका साथ दें...इनके साथ भी कुछ राबड़ी देवी जैसे लोग हैं तो कुछ लालू जैसे..खुद नीतीश के बारे में नहीं जानता उम्मीद तो यही है कि जब वो गद्दी से उतरेंगे,तब कुछ ऐसा उन्होने नहीं किया होगा जिसके लिए उनपर किसी तरह के छिटे पड़ें।खैर राबड़ी तो चलिए गंवार है स्कूल जाने की कभी जहमत नहीं उठाया पर ये मायावती और मेनका को क्या हो गया जो आपस में ऐसे लड़ रही हैं जैसे उनपर कोई जिम्मेदारी नहीं एक सबसे संस्कारी मां खुद को बताती है,तो एक बिन मां बेहतर मां होने की बात करती है और फिर किसी हद तक बयान दे डालती हैं। इन लोगों को ये समझ क्यों नहीं आता कि जिस गरिमामयी पद पर ये लोग आसीन हैं,वहां से बोला गया एक वाक्य भी ब्रह्म लकीर की तरह हो जाता है।उपर से ये मीडिया उसे अजीब तरह से पेश कर बड़ा बना देता है।तो क्या नेता संयम नहीं रख सकते क्या मुद्दे खत्म हो गये जो व्यक्तिगत आक्षेप करने से राजनेता गुरेज़ नहीं कर रहे?गलती हमारी ही तो है, जो हम ऐसे लोगों को चुनते हैं...जिनमे संयम तो है ही नहीं।कोई खास वर्ग को निशाना बना कर वोट बटोरने की कोशिश करता है तो कोई गालियां तक देकर मतदाताओं को रिझाता है।पता नहीं हम मतदाता कब सुधरेंगे...



प्रेस कांफ्रेंस या चुनावी भोंपू...



चिदंबरम को कहते सुना “वरूण को टिकट देना शर्मनाक है,” लेकिन ये समझना काफी मुश्किल है कि सरकारी नुमाइंदे भी मीडिया का बखुबी इस्तेमाल कर रहे हैं...क्या चुनाव आयोग इसे आचार संहिता का उल्लंघन नहीं मानता पत्रकार तो आज वो बन रहे हैं जिनको कहीं नौकरी नहीं मिलती वो पत्रकारिता करते हैं पर क्या चुनाव आयोग में ऐसे लोग बैठे हैं...पता नहीं पिछले कुछ दिनों से आपने भी गौर किया होगा कि कोई नौसीखिया राजनेता शिगुफा छोड़ देते हैं माफ कीजिएगा मैं संजय दत्त की बात नहीं कर रहा लेकिन फिर भी...मीडिया मूर्खों की तरह उनके पीछे पड़ जाता है और फिर वो मीडिया को अपना भोंपू समझ कर चुनाव प्रचार करते रह रहे हैं क्या बात है...हींग लगे ना फिटकरी रंग भी चोखा..रिसैशन का जमाना है पत्रकार बंधुओं को भी समझना चाहिए ये बात कि वो कितना मूर्ख बन रहे हैं एक कप चाय दालमोट के साथ खिला कर नेशनल प्रचार में जुटे हैं हमारे राजनेता लेकिन मीडिया के लोगों को ये बात समझ नहीं आ रही वो तो बस प्रेस कांफ्रेंस तब तक दिखाते रहेंगे जब तक प्रेस कांफ्रेंस में लालू के गवई अंदाज में कोई नेताजी ये न कह दें ए रिपोर्टर चाय नाश्ता का इंतजाम है खा पीकर जाना..चलो ये भी समझ में आता है कि टीवी पत्रकारों को तो नाली सड़क की खबरें नहीं दिखती वो तो अब इसके आदी हो गए हैं सो रियेलिटी शो चुनाव में कोई गूह मूंत भी बोल रहा है तो उसे 21 इंच पर दिखाते रहेंगे पर पता नहीं चुनाव आयोग को क्या हो गया है जो इन नेताओं को निर्देश जारी नहीं कर रहा...आज ही बीजेपी ने घोषणा पत्र जारी किया लगभग सभी चैनलों ने इस पर आधे घंटे तक दिखाया समझना मुश्किल है कि क्या ये उन प्रचार का ही हिस्सा है जो चैनलों पर आज कल पार्टियां दे रही हैं या फिर समाचार का हिस्सा खैर हमें क्या हमें तो बस चुनाव आयोग से आस है



जागो रे...


पिछले दिनों घर बदला तो स्वाभाविक है कि सबकुछ बदल सा जाता है। सो जरुरत महसूस हुई कि वोटर आई कार्ड पर जो पता है उसे चेंज करा लूं। इंटरनेट का जमाना है खंगालने लगा नेट। सबसे पहले दिल्ली चुनाव आयोग के साइट पर गया पता चला जिस काम के लिए मैं यहां गया हूं उसके लिए कुछ निर्देश मिल ही नहीं रहे। इस बीच टीवी पर भी खूब सारे ऐड लगातार मेरे बिजली बिल में इजाफा कर रहे थे। व्यस्त था अपना पता बदलवाने के लिए,ख्याल नहीं रहा रिमोर्ट से काम ले लूं । खैर लगा रहा अपने पते की तलाश में ऐसा लग रहा था कि इतनी तकलीफ तो इस नए घर को ढूंढने में नहीं हुई थी, जितना इस साइट पर पता बदलवाने के जानकारी के लिए हो रही है । बल्की नया घर ढूंढना ज्यादा आसान है ! कभी तो एहसास हो रहा था कि बस सरकारी काम का तरीका इलैक्ट्रॉनिक हो गया है, बाकि सब वैसे ही है जैसे एक सरकारी दफ्तर में होता था एक टेबल से दूसरे टेबल दौड़ते रहिए…काम आपका कहां बनेगा ये तो साक्षात परब्रह्म को भी नहीं पता ! सिन्हाजी के पास से वर्माजी के पास जाइये, वर्माजी के पास से सिंहजी के पास। और फिर इस जी से जी का जंजाल । किसके पास आप अपना पता चेंज करवा सकते हैं पता नहीं.....खैर एक फॉर्म दिखा- फॉर्म आठ। शक हुआ क्या यही वो फॉर्म है जिससे मैं अपना पता बदलवा सकता हूं पर किससे पूछूं ? समझ नहीं आया सोचा हेल्पलाइन घुमा लेता हूं घुमाया और पाया कि कोई फायदा नहीं सरकारी बाबुओं की तरह वो भी मौन पड़ जाता है कई जतन के बाद भी जब समस्या का समाधान न निकला तो फोन पटक कर दो चार भद्दी गालियां बिद बिदा कर वापस सिर लेपटॉप में घुसा लिया। इस बीच टीवी पर विज्ञापनों का सिलसिला थमा नहीं था, एक मोहन कपूर का सिरीयल ऑफिस ऑफिस देख रहा था लेकिन ये ऐड है कि खत्म ही नहीं हो रहा तभी आवाज सुना...जागो चाय पियो...लगा मेरे काम की चीज है...देखूं क्या कह रहे है तो कहते सुना वोट रजिस्टर के लिए साइट पर जाओ...हां जागोरे.कॉम पर जाओ मैं झट से लॉग औन कर बैठा जैसे ही अपना नाम उसपर डाला लगा जैसे इस साइट पर मेरे लिए ही कोई बैठा जवाब दे रहा है सब जगह मेरे नाम से मेरा संबोधन फिर जरूरी निर्देश और कुछ हद तक लगा कि शायद सब यहीं से हो जाएगा पर एक समय आया जब फॉर्म के साथ निर्देश मिला कि आप फलाने जगह सरकारी दफ्तर जाएं और वहां पर इस फॉर्म को जमा कर दें खैर, एक प्राइवेट साइट पर इतना कुछ मालूम चला, सरकारी पर तो वो भी पता नहीं चल पाया कि आखिर कौन से फॉर्म को भरने से मेरे समस्या का समाधान हो जाएगा इसपर कम से कम इतना तो पता लगा.....चलिए कोई तो है जो आपकी आवाज सुन रहा है देखता हूं चुनाव से पहले पता चेंज करा पाता हूं या नहीं।



ये क्या हुआ पाकिस्तान को...

आखिर पाकिस्तान को क्या हो गया...क्या वो इसलिए बना था...क्या जिन्ना होते तो वो इन हालातों को बर्दाश्त कर पाते...खैर जरदारी की हालत कुछ वैसी ही जैसे रोम के जलते वक्त नीरो का था...कुछ सुधारवादी सोचते हैं अगर बेनजीर होती तो जम्हुरियत का रुख कुछ और होता...पर ये समझ पाना मुश्किल है कि हालात कब बेहतर होंगे...जब भी कुछ सुनता हूं तुरंत बीबीसी खोलता हूं कि शायद कुछ हालात बेहतर हुए हो...आम लोग भी तो यही चाहते हैं...तालिबान का स्वात पर कब्जा जैसे ये बताने के लिए हुआ कि अमेरिका ने एड कम क्यों किए ? लीजिए भुगतिए...कुछ प्रश्न मन को विचलित कर जाता है...नवाज क्यों आतुर हैं सब कुछ ठीक कर देने के लिए मुशर्रफ आए थे तो जान बचाना ही बेहतर समझा उन्होने...पर अब तेवर अलग हैं..कुछ करना चाहते हैं...अपनी बेगुनाही के सुबूत वो अक्सर आज भी साक्षात्कार के दौरान पेश करते हैं कि कारगिल के लिए वो शामिल नहीं थे...जो कुछ भी हुआ मियां के अकेले की सोच थी...तो क्या जम्हुरियत वहां सिर्फ सेना का मुखौटा भर है आखिर कब होगा वहां रात का अंत...